एक एहसास

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

उसकी माँग की सिन्दूर हरजाई लगती है,
उसके होठों की लाली बहलाई लगती है।
थकीं-हारीं, लुटीं-पिटीं नज़रें हैं ख़ामोश,
पतझर में खोयी जैसी अमराई लगती है।
आँखों की नींद पसरी, ख़यालात सो गये,
खोयी-रोयी बिरहिन की अँगड़ाई लगती है।
इक भीगी हुई शाम की दहलीज़ पे बैठी,
एहसास होता है, कोई भरमाई लगती है।
क़ज़ा आगोश में ले, जब लोरी सुनाती है,
साँझ ढलती जीवन की शहनाई लगती है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २४ अगस्त, २०२० ईसवी)