पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक :
मैंने सूरज का जवाल१ भी देखा है,
तूने कर लिया ख़ुद के साये पे भरोसा?
दो :
मेरे लाख कहने पे भी नहीं मानते हैं लोग,
यों खुलकर मत मिलो बुरा मानते हैं लोग।
तीन :
अहदे माज़ी२ की हर बात अब भुला दी मैंने,
अजनबी की तरह ही अब मिला करो मुझसे।
चार :
इस क़दर बेरुख़ी से क्यों देखते हो मुझको?
मेरा दिल भी नाज़ुक है, तेरे बदन की तरह।
पाँच :
उजाले में पहचानने से डर लगता है,
दीये बुझाओ, चेहरे की रौशनी फैले।
शब्दार्थ :– १- पतन २- शानदार अतीत।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ मार्च, २०२० ईसवी)