ज़ेह्न में उसके फ़क़त ज़ह्र भरा रहता है

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
किसे रोकूँ और किसे कहूँ, चले जाओ तुम सब,
निगाहों की तलाशी में पाक-साफ़ कोई दिखता नहीं।
दो–
आज हवा में बला की शोख़ी नाच रही,
कल तक खिंचे रहे, आज चले आ रहे।
तीन–
ज़ेह्न में उसके फ़क़त ज़ह्र भरा रहता है,
निगाहों में नाच रहा, क़ह्र का मनाज़िर१ अब।
चार–
बेरहम ज़माना सलीक़े से जीने नहीं देता,
इंसानियत कराहती और ठिठक जाती है।

शब्दार्थ : मनाज़िर : मंज़र (दृश्य) का बहुवचन।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २ जनवरी, २०२० ईसवी।)