पत्थर से जूझता अमलतास लिखता हूँ

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

सदियों से भटकती, इक तलाश लिखता हूँ,
हवा, पानी, आँधी और बतास लिखता हूँ।
सूख रही ताल-तलय्या, अब दूभर है पानी,
इस काइनात१ की, अब ख़लास२ लिखता हूँ
हमक़दम दग़ा दे गया, कुछ दूर चलकर ही,
अपनी मनाज़िल३ की, हर खटास लिखता हूँ।
छेनी-हथौड़ी-पत्थर ले, ज़मीँ पे आ गया हूँ,
ख़ूबसूरत की चाह में, इक तराश लिखता हूँ।
‘पृथ्वी’ तेरे आँगन में है, क़ुद्रत का हर रंग,
पतझर से जूझता, अमलतास लिखता हूँ।

क्लिष्ट शब्दार्थ—-
१- संसार २- मुक्ति ३- मंज़िल का बहुवचन।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ अगस्त, २०२० ईसवी)