एक आह्वान

मुट्ठी तान लो!
बायेँ हाथ की अँगुलियाँ भी
हथेली से एक साथ जुड़ना चाहती हैँ।
मरी हुईँ अँगुलियोँ के इर्द-गिर्द
मक्खियाँ भिनभिनाती हैँ।
पुरुषार्थ के अंगारे को चूम लो!
राख मे दबी हुई चिनगारी को
अलसाने मत दो।
हर खेत मे,
चिनगारी की सुगबुगाहट बो दो।
हवा अपना रास्ता
ख़ुद-ब-ख़ुद तलाश लेगी;
पानी की सम्भावना दम तोड़ देगी।
समय के सीने पर,
किये हुए तुम्हारे हस्ताक्षर
जीवन्त हो उठेँगे।
आदर्श और यथार्थ के मध्य,
जो एक रेतीली रेखा चल रही है,
वह तुम्हारे पंकिल विचारोँ को
रेतने के लिए आतुर है।
इससे पहले कि
सर्जन से विसर्जन तक की अनथक यात्रा,
विभ्रम का प्रवास बन जाये,
एक ऐसे निवास का निर्माण कर लो,
जहाँ का सब कुछ तुमसे होकर ग़ुज़रे
और तुम अनासक्ति-आसक्ति के साक्षी बनते दिखते रहो।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २२ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)