अनुभूति के गह्वर मे

एक–
हिरणी कनखी ताकती, चण्ट व्याध की ओर।
सोच डूबता प्रश्न मे, होगी कब अब भोर।।

दो–
चंचरीक-चितवन चतुर, डोल रहा हर छोर।
चपल चंचरी लख रही, प्रणय-सूत्र की ओर।।

तीन–
धर्मयुद्ध अब है कहाँ, कर्महीन चहुँ ओर।
पाँव पंक मे धँस रहे, मनबढ़ दिखते चोर।।

चार–
कर्म-कथन मे भेद क्योँ, मिटे न मन का मैल,
राह चल रहे इस तरह, दिशाहीन ज्योँ बैल।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)