दरोदीवार मे अपना हम नाम ढूँढ़ते हैँ

बेख़ुदी का हश्र कैसा, हम जाम ढूँढ़ते हैँ,
ज़ख़्म बूढ़ा ही रहे, हम आराम ढूँढ़ते हैँ।
चेहरोँ मे छिपा चेहरा, जाने बैठा है कहाँ,
रावण के घर मे, हम ‘राम’ ढूँढ़ते हैँ।
नख-शिख अत्याचार का बाज़ार है खुला,
बस्ती है हैवानो की, हम काम ढूँढ़ते हैँ।
आँखेँ बूढ़ी हो रहीँ; हालात भी बूढ़े,
भटके फिरे हैँ ख़ूब, हम शाम ढूँढ़ते हैँ।
मुल्क़ की तस्वीर मे, गुमनाम हम दिखते,
दरोदीवार मे, अपना हम नाम ढूँढ़ते हैँ।
बयाँ कर रहा है; बदले फ़ित्रत का हर रंग,
ताल्लुक़ात ख़त्मकर, हम धाम ढूँढ़ते हैँ।
आवारे क़दम फिरते रहे; बेहोश जब रहे,
ख़ास शहर मे राह, हम आम ढूँढ़ते हैँ।
बारिश मे भीँज, देह की हड्डी अकड़ गयी,
सेँक थोड़ी मिल जाये; हम घाम ढूँढ़ते हैँ।
सारा शरीर मर रहा; हड्डी ही दिख रही,
बस लाज बच जाये, हम चाम ढूँढ़ते हैँ।
नीलाम होनेवाली है, पाक़ीज़गी यहाँ,
अस्मत बचायी जा सके, हम दाम ढूँढ़ते हैँ।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ अक्तूबर, २०२४ ईसवी।)