● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
ज़िन्दगी मे अर्थ की परिव्याप्ति
सुरसुरी-सी लगने लगी है।
देह की खुरचन
सायास-अनायास,
केंचुल की भाँति
उतरती आ रही है।
कालखण्ड
स्थितप्रज्ञ की भूमिका मे
अनासक्त योगी-सदृश
“एकोहम् सर्वेषाम्” को अभिमन्त्रित कर,
लोकजीवन को जाग्रत् कर रहा है।
प्रार्थना–
स्वीकृति-अस्वीकृति की धुरी पर
एक अन्तराल लेकर,
परीक्षण की कालावधि से होकर,
निर्निमेष उस निष्पत्ति की ओर
दृष्टिपात कर रही है,
जिधर से ‘शिखर से शून्य तक’
मार्ग अनवरत ‘आ’ और ‘जा’ रहा है।
थक-अनथक की ताल पर
सरगम थिरकते-थिरकते
क्लान्त और श्रान्त हो चुका है।
आरोह-अवरोह का सांगीतिक पथ–
आहत-अनाहत नाद से,
घायल होता जा रहा है।
सुदूर लक्षित–
मन्द्र, मध्य तथा तार सप्तक,
संगीत-साधक के दृष्टिपथ पर,
व्यतिक्रम के अन्तर्जाल बिखेर चुके हैँ।
उस पाश से–
मुक्तिद्वार तक का मार्ग,
सुगम है तो दुर्गम भी।
कण्टकाकीर्ण पथ पर–
पगसंचलन का अभ्यास
जीवन को हर बार,
एक नया अर्थ दे जाता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)