अतीत की ओर लौटते मेरे सहयात्री!

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

अपने बलिष्ठ कन्धों पर
तीन सौ पैंसठ दिनों के भार
पल-पल लादकर
अनवरत-अनथक यात्रा करते-करते,
अतीतोन्मुख होते सहयात्री!
तुम क्लान्त हो चुके हो;
श्रान्त हो चुके हो;
विश्रान्ति प्रतीक्षारत है,
तुम्हें आगोश मे भरने के लिए;
थपकी की ताल पर
सुमधुर स्वर मे लोरियाँ सुना-सुना सुलाने के लिए।
अब तुम्हें चिर-निद्रा की ओर बढ़ना है।
तुम्हारे जीवन के अवसान की
पटकथा लिखी जा चुकी है।
कल-चक्र के दोनों पहिये जैसे ही
अंक बारह का संस्पर्श करेंगे,
तुम नेपथ्य में समा जाओगे–
एक सुलझा-अनसुलझा इतिहास बनकर।
शिकवा-शिकायत-गिला
तुमसे नहीं, स्वयं से है।
काश! कुछ सँभल लिया होता …..
इतना भी गिला नहीं
सँभाल न सकूँ, अपने चेतन को;
सन्तुलित न कर सकूँ
जीवन की ओर और छोर को।
मैने अब आकार लेना आरम्भ कर दिया है;
अगले तीन सौ पैंसठ दिनों के समानान्तर।
मेरी मति-रति-गति
विभावना और सम्भावना के झूले में झूलती हुईं;
आरोह-अवरोह की जुगलबन्दी के साथ
संवाद और विवाद,
संस्कृति और विकृति की पटकथा
लेखन करने का पूर्वाभ्यास कर रही हैं।
उन्हें ज्ञात है,
मै रिक्ति और विरिक्ति का पक्षधर कभी रहा नहीं।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२१ ई०।)