बनते-बिगड़ते समीकरण

जब स्वयं से स्वयं को
उतार फेँकता हूँ,
एक चमकती थाली मे
सम्भावनाओँ के व्यंजन
आँखोँ मे चमक भर देते हैँ।
भूत-वर्तमान-भविष्यत् की अँगुलियोँ पर,
नये-नये समीकरण
बनाने और मिटाने मे लग जाता हूँ।
कभी ऋण (-) को सीना ताने पाता हूँ
तो कभी धन (+) को सकुचाते देखता हूँ।
गुणनफल (×) काफ़ी पीछे छूट आता है;
और जब पलटकर देखता हूँ
तब भागफल (÷) का शेष
धन (+) और (×) गुणनफल को
फुसलाते दिखता है।
समीकरण एक रूप मे नहीँ रहता;
बनता रहता है; बिगड़ता रहता है;
मिटता रहता भी है,
मन अस्थिरता के दौर से
गुज़रता रहता है।
बेहया बनकर कहना पड़ता है–
वातावरण तनावग्रस्त है;
स्थिति नियंत्रण मे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)