डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
हे ईश्वर !
सचमुच, हम कितने चतुर मूर्ख हैं |
मतभेद से मनभेद तक की यात्रा
यों ही समाप्त नहीं हो जाती;
मन-मस्तिष्क उद्वेलित कर देते हैं रक्त-शिराओं को |
मस्तिष्क के तन्तु—
राग-विराग, द्वेष-अहम्मन्य को
नख-शिख की पगडण्डियों पर
फिराते रहते हैं
और हमारे विवेक पर
भावना प्रभावी हो जाती है |
अन्तत:, घटना-दुर्घटना
एक निर्मम पटकथा
तैयार कर देती है–
हमारी जीवन्त मूर्खता का !
और हमारे कातर नेत्र
साक्षी होते हैं,
हृदय-विदारक परिदृश्य के !
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ; १९ अक्तूबर, २०१७ ई०)