● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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बेशर्म निगाहोँ की नज़र, तोड़िए हुजूर!
बेईमान नज़रोँ की नीयत, छोड़िए हुजूर!
मर रहा आँखोँ का पानी, देखिए एक बार,
इंसानियत से नज़रेँ, न मोड़िए हुजूर!
आँखेँ हैँ थक चुकीँ, सब्ज़बाग़ देखकर,
फ़र्क़ कथनी-करनी मे, अब छोड़िए हुजूर!
क़ुर्बानी का अंजाम है, जो देश है आज़ाद,
भूलकर उपलब्धि को, मत गोड़िए हुजूर!
माहौल भय-घृणा का, घुटन साफ़ है दिखता,
अपने किये कर्मो को, मत कोड़िए हुजूर!
जो दफ़्न हो चुके हैँ, क़ब्रगाह मे यहाँ,
उन्हेँ उनके हाल पर, अब छोड़िए हुजूर।
सेवक-फ़क़ीर-संत, न बदनाम कीजिए,
भाँडा चौराहोँ पर, अब न फोड़िए हुजूर!
बाँट-काट-छाँटकर, कब तक चलेँगे आप?
बिखर रहा है देश, उसे जोड़िए हुजूर!
◆ कोड़िए = खोदिए।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)