● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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सुनो न!
तुम्हारी पूर्णता
भाती नहीँ मुझे;
क्योँकि तुम मुझसे
द्रुत गति मे चलायमान हो।
हाँ, मै अपूर्ण हूँ।
तुम मुग्ध हो, अपनी पूर्णता पर
और मुझे गर्व है, अपनी अपूर्णता पर;
क्योँकि आज मुझे
एहसास हो रहा है :–
कुछ रिक्तता बहुत ज़रूरी है,
ज़िन्दगी को तराशने के लिए।
मै काम्य कर्म से परे
काम्यत्व से रहित
कापथ से मुक्ति का
आकांक्षक रहा हूँ।
तुम्हारा आक्रमिता-चरित्र
मुझे तुम्हारी ओर आकृष्ट नहीँ कर सकता;
क्योँकि तुम्हारा गर्विता-रूप
गर्ह्यवादी प्रतीत होता आ रहा है।
मुझे तलाश है :–
एक मधुर और बिनब्याही अपूर्णता की;
जो अनसुनी, अनकही तथा अनदेखी रही हो;
वही अपूर्णता स्निग्ध है;
सौजन्य, सौम्य, सौरभित है;
बिनब्याही मंज़िल-सी।
आओ! माँग भर देँ;
एक ऐसे अनुराग का प्रस्फुटन कर देँ,
जिससे हम अद्वैत गवाक्ष से
द्वैत पर द्वैधपूर्ण दृष्टि का अनुलेपन करते रहेँ
और हम अपूर्ण रहकर भी
पूर्णता के साक्षी बनते रहेँ।
◆ ‘चीख़ते सन्नाटे’ से सकृतज्ञता गृहीत।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज, २७ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)