● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
कल मुझसे,
मेरी पीठ मिली थी।
खोयी-खोयी-सी;
रोयी-रोयी-सी;
बेचैन निगाहों से,
सन्नाटे को बुनती हुई।
पूछना धर्म था; पूछ ही डाला :–
कहो! कैसी हो?
उसका दृष्टि-अनुलेपन
मेरे वुजूद को घायल करता रहा।
वह ताड़ती रह गयी,
मेरे दु:ख-सुख की प्रतीति को।
फिर पूछा :― बोलो न!
कैसी हो? मौन को चीरो।
तुम तो नेपथ्य मे रहा करती हो,
तुम्हारा संस्पर्श चाहता हूँ।
तुम्हें आँखभर देख लेने की चाह मे,
अधूरा भी सरक लेता है।
वह बिनब्याही प्रेयसी-सी;
अवगुण्ठनवती-सी;
अपनी अनामिका को,
पल्लू मे वृत्ताकार घुमाते;
आँखें गड़ाते; यों प्रतीत हो रही थी,
मानो धारित्री से संवाद कर रही हो।
वह छलक पड़ी;
उसके कातर नेत्रों से,
उपालम्भ छलक पड़े।
अपना मर्मभेद खोलने लगी :–
मै आघात सहते-सहते,
विक्षिप्त-सी हो गयी हूँ।
पीछे से हर किसी की
शाबाशी लेते-लेते;
खंजर का घाव खाते-खाते;
अकथ कहानी बन गयी हूँ।
मेरी जिजीविषा और जिगीषा के मध्य,
एक झीना-सा पर्दा है;
जब वह गिरता है तब–
खंजर-सा घाव करता है
उठता है तो ‘शाबाशी’ का ठप्पा लगातीं
पाँचों अँगुलियाँ खिलखिला पड़ती हैं।
सिसकियों मे उसके शब्द विलीन होते रहे।
मै निर्वाक्-निश्शब्द-निस्तब्ध था।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जून, २०२३ ईसवी।)