जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबाद

कविते!तेरे दृगबन्धों से न नीर बहे,
मणिबन्धों से मिलकर ये पीर कहे।
मेरा हृदय तेरा हृदय संश्लिष्ट होकर,
क्यों दुनिया भर के ये तीर सहें ।
कविते!तेरे दृगबन्धों…………….
अद्भुत है तुझमें यूँ मिल जाना,
तेरी हर इक साँस में घुल जाना।
संदर्भित है जीवन मेरा राह तेरे,
मिलके चेहरे का फिर खिल जाना।
कविते!पग में तेरे नित क्षीर बहे,
कविते!तेरे दृगबन्धों……………
संस्पर्श तेरा मन को है भाता,
विमर्श में दिन व्यतीत हो जाता।
यह प्रकृति बसी है तेरे ही पथ में,
मिल कर संगीत है बन जाता।
कविते!दिल तुझको ही हीर कहे,
कविते!तेरे दृगबन्धों……………
सुन चल चलें कहीं एकांत की ओर,
जहाँ हुई हो नई नवेली शान्त सी भोर।
मेरा उन्मुक्त हृदय स्वाबद्ध हो जाएगा,
फिर विचलित न कर सके कोई शोर।
तेरा प्रेम ही मेरा सदा ज़ंजीर रहे,
कविते!तेरे दृगबन्धों…………….