चुप! उन्हें सोने दो

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

अब मरघट से धुँआ नहीं निकलता
चिट्-चिट् कर चिनगारी फेंकती आवाज़
अब बेज़बाँ हो चुकी है।
धरती अपने सीने मे
राज़ दफ़्न करते-करते अशक्त हो चली है।
उसे मालूम है,
निस्सहाय हताहतों की संख्या।
अपने और नितान्त अपने हाथ
कफ़न को सहलाकर रह जाते हैं
और आँखों मे आँखें डाल
सिसकियों को टटोलते हुए,
अदृश्य स्रोत से उनका
आदान-प्रदान कर लेते हैं।
यहाँ से वहाँ तक
लाशों का अम्बार,
अपाहिज़ क्रूरता की निगरानी मे;
अपने को जोहने की प्रतीक्षा मे;
अपनी शिनाख़्त खोता जा रहा है।
गलियों से आवारा कुत्तों की आँखें
और उनकी लपलपाती जीभें
एक-दूसरे से प्रश्न-प्रतिप्रश्न करती आ रही हैं।
आकाश का सीना चीरते हुए,
गिद्धों का समूह प्रत्याशा मे
धरती की ओर उतरता आ रहा है।
निरुत्तर साया बाँहें फैलाये,
एक लाश से दूसरी लाश के ऊपर से
ग़ुज़रता जा रहा है,
मानो किसी यात्री-रेलगाड़ी से कुचले इंसान को
कोई मालगाड़ी एक बार फिर
रौंदते हुए निकल आयी हो।
सिर अलग; धड़ अलग
पहचान से महरूम;
सभी सम्बन्धों से परे :–
कटे-पिटे-पिसे-सिले-मिटे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ जून, २०२३ ईसवी।)