● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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एक–
जन का तेल निकाल कर, भरेँ दीप मे तेल।
परवश कैसा राम है, खेल रहा है खेल।।
दो–
दृष्टि सयानी दिख रही, बढ़ा रही है प्रीति।
घायल करती राज को, बना रही है नीति।।
तीन–
संविधान अब गौण है, केवल व्यक्ति प्रधान।
प्रजा देश की मौन है, भ्रमित लक्ष्य-संधान?
चार–
कुचल रही जनभावना, मूक-बधिर हैँ लोग।
साहस बन्दी दिख रहा, घर-घर भय का रोग।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ अक्तूबर, २०२४ ईसवी।)