आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
कुछ कहने पे ज़बाँ, साथ देती ही नहीं,
आँखें भी मुँह फेर लेती हैं, चुप रहने पे।
दो–
वे जब भी मिले, आँखें बदल-बदल कर,
न कहीं इंकार मिला, न कहीं इक़्रार दिखा।
तीन–
उनके इस्रार का सच, मान लूँ, कैसे भला?
महब्बत की अँगड़ाई मे, रुस्वाई नज़र आती है।
चार–
कहने दो उसे ख़ुद को, पाक-साफ़ यहाँ,
नज़र मिलाते ही, लाजवाब हो जाता है।
पाँच–
आओ! बैठो, इस सवाल पे ग़ौर हमे ही है करना,
हमारे दामन पर छींटों की शिकायत अभी कितनी है?
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ अक्तूबर, २०२३ ईसवी।)