कविता : दहेज दानव

राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’    
प्रधान संपादक : इण्डियन वॉयस 24    

कब तक अपनी बहू बेटियाँ

चढ़ती रहेंगी बलिवेदी पर ।

इस दहेज दानव के मुख का

कब तक रहें निवाला बनकर ?

कब तक इनके पैरों में

जकड़ी रहेंगी बेड़ियाँ ?

कब तक हम सब हाथों में

पहने रहेंगे चूड़ियाँ ?

कब तक भ्रष्ट समाज के आगे

अपनी इज़्जत नतमस्तक होगी ?

कब तक धन लोलुपता के आगे

नर्क ज़िन्दगी त्रिया की होगी ?

इस दहेज  ने आज सभी को

नेत्रहीन कर डाला है ।

खिली हुई नवकलिका को

पैरों तले कुचल डाला है ।

क्रय विक्रय इंसानो का

अपराध बड़ा कानून बताता ।

पर विवाह में यह दहेज

दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता ।

इस समाज के कर्ता धर्ता

सब दहेज के लोभी हैं ।

ऊपर नीचे इस समाज में

सब ही सुविधा भोगी हैं ।

इस दहेज ने अब समाज में

गहरी जड़े बिठा ली हैं ।

हर सफेद पर्दे के पीछे

मन की मूर्ति काली है ।

दूर भगाओ इस दहेज को

यदि तुम में मानवता है   ।

ये व्याधि प्राण हरने वाली

ये प्रथा नहीं कुत्सितता है ।

क्यों दहेज के लिए किसी का

जीवन तबाह करते हो ?

क्यों दहेज दानव को

घर में शुमार करते हो ?

मार भगाओ इस दानव को

करो प्रयास सभी मिलकर ।

अब और न कोई जले मरे

इस दहेज की आग में जलकर ।।