अभिव्यक्ति : इक पैग़ाम ‘उनके’ नाम

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


बेजान सड़क पे, इक गुमनाम दिख रही,
अनजान-सी हक़ीक़त, बदनाम दिख रही।


—–इक पैग़ाम ‘उनके’ नाम—–


उस हवा को सलाम, जो लहरा रही है ज़िन्दगी,
उस धूप को सलाम, जो खिला रही है ज़िन्दगी।
ज़ालिम ज़माने की निगाहें, उसे ठूँठ बना रहीं,
उस नदी को सलाम, जो सरसा रही है ज़िन्दगी।
मन खिन्न और उदास है, उसकी आवारगी देख,
उस वादी को सलाम, जो हरषा रही है ज़िन्दगी।
सियासत का वश चले, तो रौंद दे वह इंसानियत,
उस क़ुद्रत को सलाम, जो जिला रही है ज़िन्दगी।
दीवानगी का आलम अब, कुछ मत पूछिए हुज़ूर!
उस मुहब्बत को सलाम, जो मिला रही है ज़िन्दगी।


(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; १३ मार्च, २०१८ ई०)