● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
टूट रहे तटबन्ध हैं, जल का हाहाकार।
प्रलय आँख मे नाचता, लिये मृत्यु आकार।।
दो–
चाहत पूरी कर रहा, ले निर्मम-सा रूप।
जनता मरती देश मे, कितना निर्मम भूप।।
तीन–
हा धिक्-हा धिक्! कर रहा, क्रन्दन जन-जन देह।
निर्मम शासन देश का, मरता जाता नेह।।
चार–
ख़ुद का जीवन जी रहा, कर प्रवंचना देश।
कथनी-करनी से अलग, बाँट रहा उपदेश।।
पाँच–
ऋण मे जनता फाँसकर, मुखिया घूम विदेश।
जनता डूबी बाढ़ मे, चिन्ता दिखे न लेश।।
छ:–
ठहरी-सहमी ज़िन्दगी, सकुची-सिसकी देह।
ताल ठोंकती हर नदी, बिन बादल के मेह।।
सात–
मन व्याकुल हो रो रहा, व्यथित हैं करते चित्र।
जल जीवन को लीलता, सहोगे कब तक मित्र?
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ जुलाई, २०२३ ईसवी।)