सखी! हम काहू सो नाइ कही।
जोई तुम कहेउ, वहै सब साँची,
मनहद पार करी।
प्रियतम पालि, दिया नहिं बारेन ,
बरबसि रारि परी।।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
जोई तुम कहेउ वहै, हम बाँची,
बतरस-धार बही।
सतरस पूरि कर्षिता-मुदिता,
सरसति साज सधी।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
जोइ कछु दियेउ, कबहुँ नहिं जाँची,
रुचि-रुचि देर धरी।
करतल जोरि, सुपारि सुबीता,
सहजइ सुधि बिथरी।।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
जोइ रंगि दियेउ, वहै मन राँची,
सुभग सिंगार सजी।
एकउ बेरि दीठि नहि फेरेउ,
मनसिज तार कसी।।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
जोइ तजि दियेउ काँच सम काँची,
निसिदिन राह तकी।
देर अबेरि, तुमारी बेरिया,
कलकनि नाहिं थकी।।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
चिन्तामणी हाथ सो खाँची,
चितवनि नाहिं तजी।
सुर तुलि ताल सरंगी झंकृत,
भैरवि राग बजी।।
मनहि मन बंसरि बैन बही।
सखी! हम काहू सो नाइ कही।।
अवधेश कुमार शुक्ला
मूरख हिरदै
मूर्खों की दुनिया
फाल्गुनी प्रथमा कृष्ण
06/02/2023