
कहु सजनी , अब कहँ – कहँ खोजूँ,
तन – मन को विश्राम ।
जहँ – जहँ जाउं, तहाँ – तहँ भटकन,
हारे को हरिनाम ।।
राम, कहँ पावै मन विश्राम ।।
भाषा मौन , मौन परिभाषा युक्त,
हो चला राग ।
अनुबन्धित स्वर – मालाओं से,
मुक्त हुआ अनुराग ।
अब भी दीपक लिए बना मैं,
पथचारी अविराम ।।
हारे को हरिनाम ।।
ज्ञान बना बन्धन का कारण,
हुआ श्रृंखलित ध्यान ।
वैचारिकी अतल उफनाई,
हुआ मुक्त अनुमान ।
अब भी पीली स्मृतियों में,
दिख रहा दृश्य अभिराम ।।
हारे को हरिनाम ।।
मुक्त गगन का आहत पंछी,
करता अनहद नाद ।
राग द्वेष कब मुक्त कहाँ ?
है मिटता कहाँ विषाद ?
तब भी चलता बोझा लादे,
व्यर्थ बँधा व्यवधान ।।
हारे को हरिनाम ।।
कैसे धरे धीर अंतर्मन,
पावै अविरल छाँव।
मन के विकल विकल्प अधूरे,
कहँ थिर पावै ठाँव ।
अब भी आस अधूरी, पूरी,
करने को संग्राम ।।
कहँ पावै विश्राम ।।
कहु सजनी अब कहँ – कहँ खोजूँ,
निज मन को विश्राम ।
जहँ – जहँ जाउं तहाँ – तहँ, भटकन,
हारे को हरिनाम ।।
राम, कहँ पावै मन विश्राम ।।
अवधेश कुमार शुक्ला
मूरख हिरदै - मूर्खों की दुनिया
दीपमालिका, यम द्वितीया कृष्ण
14/11/2023
रचनाकाल – अगस्त 2000