काले उसके कर्म हैँ, रहे गर्त मे ठेल

एक–
कहलाता है विश्वगुरु, समय खेलता खेल।
जनता दिखती मुग्ध है, चकित कर रहा मेल।।
दो–
निर्मम कितना रूप है, देशद्रोह है नीति।
छल-प्रपंच से युक्त है, उसकी अपनी रीति।
तीन–
शर्म घोलकर पी गया, तनिक नहीँ संकोच।
मरता पानी आँख का, गर्हित उसका सोच।।
चार–
बोली कौआ-सा लगे, मनबढ़ उसका खेल।
काले उसके कर्म हैँ, रहे गर्त मे ठेल।।
पाँच–
नख-शिख विष से है भरा, दाँतोँ को दो तोड़।
जीना उसका व्यर्थ है, आँखोँ को दो फोड़।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० जून, २०२५ ईसवी।)