● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
एक–
कहलाता है विश्वगुरु, समय खेलता खेल।
जनता दिखती मुग्ध है, चकित कर रहा मेल।।
दो–
निर्मम कितना रूप है, देशद्रोह है नीति।
छल-प्रपंच से युक्त है, उसकी अपनी रीति।
तीन–
शर्म घोलकर पी गया, तनिक नहीँ संकोच।
मरता पानी आँख का, गर्हित उसका सोच।।
चार–
बोली कौआ-सा लगे, मनबढ़ उसका खेल।
काले उसके कर्म हैँ, रहे गर्त मे ठेल।।
पाँच–
नख-शिख विष से है भरा, दाँतोँ को दो तोड़।
जीना उसका व्यर्थ है, आँखोँ को दो फोड़।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० जून, २०२५ ईसवी।)