उषा लाल-
पूछ रही ‘आधी आबादी’
क्या हम भी आज़ाद हैं?
कब आयेगी अपनी बारी
मन में ये ही साध है !!
जब तक रहे गर्भ में हम
तब तक ‘अपनों ‘से डरते थे,
बाहर आकर रहे तिरस्कृत
अनचाहे से फिरते थे !
हम तो थे अनजान तथ्य से
नहीं समझते थे ‘शोषण ‘
अब जाना यह बहुत आम है
जहाँ दिखे कोई “नारी तन ” !
हो किशोर कुछ लगे समझने
बस डर -डर कर जीते थे
सब की नज़रें व्याघ्र सरीखी
अपने तन पर सहते थे !
जाने कितने नियम क़ायदे
हम पर ही थोपे जाते
क्या पहनो और कैसे बोलो
यह भी दूजे बतलाते !
हो समर्थ अपने पैरों पर
खड़े हुये विश्वास से
टूट गया यह भ्रम भी अपना
बलात्कारियों के दाँव से !!
हम सब हैं बन्धन में जकड़े
तथाकथित नैतिकता के,
क्यूँ कर हम स्वतंत्र कहलायें
है सवाल मेरा सबसे !!