माँ की ममता 

जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबाद-          


कहीं लग न जाए मेरे कलेजे के टुकड़े को ठण्ड,

यह सोच माँ के कलेजे में बर्फ सी जम जाती है।
धूप से न झुलस जाए मेरे मासूम बेटे का चेहरा,
ये सोच माँ की तो मानों साँसे ही थम जाती है ।
दौड़ती है; भागती है; चाहे जितना हाँफती है;
कलेजे के टुकड़े को जाने कैसे येे पालती है।
भूखी हो; थकी हो; या दुनिया दुत्कारती हो;
कौन ऐसी माँ है जो बेटे को न दुलारती हो।
पिसती है; सिसकती है फिर भी न ठिठकती है,
बेटे की इक चीख पर अनायास ही सिहरती है।
ऐ माँ ! ये ‘जगन’ तेरा बेटा कहलाने के काबिल तो नहीं,
पर इतना जानता है कि जन्नत तेरे चरणों में बसती है।