जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबाद-
मैं चैत्य हूँ गाँव के किनारे का,
आज जरूरत है मुझे सहारे की!
मैंने देखा गाँव के बच्चों को बड़े होते,
लड़ते – झगड़ते और हँसते – रोते !
मैं भी ख़ास हिस्सा हूँ गुजारे का,
मैं चैत्य हूँ……………………… .!!
बच्चों की हुड़दंग और कौवे की काँव-२,
वह किनारे के बरगद की घनी छाँव !
वह गाँव के पशुवों का शाम को आना,
बच्चों को अचानक से लगते पैरों में ठाव!
वह बहता हुआ पानी घरों के पनारे का ,
मैं चैत्य हूँ……………………… …!!
वह गाँव की बेटी का विदा होना,
यूँ कलेजे के टुकड़े का जुदा होना!
मैंने लोगों को सिर्फ़ जाते ही देखा है,
अब आँखों में सिर्फ इंतज़ार की रेखा है!
वह सावन के झूलों जयघोष के नारे का,
मैं चैत्य हूँ……………………… ….!!
बढ़ती गईं ज़िन्दगी में वीरानियाँ,
शहर में खोती गईं नौजवानियाँ!
खानदान के खानदान टूटते गए,
रिश्ते दिन- ब-दिन दरकते गए !
नित बढ़ता गया ज्वर पारे का ,
मैं चैत्य……………………. ………!!