
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
गहरी है संवेदना, भीतर-बाहर घाव।
सिसकी सहमी दिख रही, उजड़े मन के भाव।।
दो–
तन का मन घायल यहाँ, बिसुर रहा है मोह।
ममता जर्जर दिख रही, विकल दिख रहा छोह।।
तीन–
आँखेँ कहतीँ नज़र से– बहन! न मोड़ो हाथ।
चंचल चितवन चतुर है, हम हो जायेँ साथ।।
चार–
अंग सिकुड़ते जा रहे, दम्भ न छोड़े साथ।
लज्जा है धिक्कारती, झुक-झुक जाये माथ।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज, २३ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)