जगन्नाथ शुक्ल…✍
(प्रयागराज)
शब्द हूँ ;शान्त हूँ; मत समझ श्रान्त हूँ।
वर्ण के भेद से वाक्य में क्लान्त हूँ।।
वो तो श्रृंगार से थी मोहब्बत मुझे;
ओज धारण करूँ या नहीं; भ्रान्त हूँ।
थोड़ी बदली ढ़के है क़मर की कमर;
मैं भाव से हूँ भरा, कंत हूँ कान्त हूँ।
मूर्त हो न भले वो अमूर्त ही है भली;
वाक्यांश तो नहीं; मैं वाक्यान्त हूँ।
उस विरहिणी से होगा मिलन कब भला?
मैं नहीं वान्त हूँ; मैं हृदय-प्रान्त हूँ।
©जगन्नाथ शुक्ल…✍
(प्रयागराज)
९६७००१००१७