
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक– दिल दिमाग़ से दूर है, मति-गति भी है दूर। बन्द दिखें आँखें खुलीं, अच्छे हमसे सूर।। दो– रूप रूपसी से कहे, रुतबा का नहिं जोड़। रूप-रंग१ रचना रचे, रूपक का नहिं तोड़।। तीन– संकट संकुल२ संकुचित, संग-साथ सोपान। संघाती३ संजीवनी४, संचित संज्ञा५ जान।। चार– हंस६ वंश७ अवतंस८ सम, मुरली की है तान। मृदुल९ मधुर१० मतिमान्-सा११, मृदुता१२ मधु मुसकान।।
शब्दार्थ :–
१सौन्दर्य-रंग २घबराया हुआ ३साथ देनेवाला ४जीवन देनेवाली ५बोध/ज्ञान ६आत्मा ७बाँसुरी ८आभूषण ९कोमल १०कर्णप्रिय ११बुद्धिमान्-सा १२मन्द-मधुर होना।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयाग; ३ जनवरी, २०२३ ईसवी।)