अश्वनी पटेल, बालामऊ, हरदोई–
स्मरण हो रहा है उन विचारों का,
जो जेहन मे उमड़े थे पहली बार।
शायद तब मै बच्चा ही था,
कुछ मायने नहीं रखता था
जीत हो या हार।
थी कुछ ऐसी कही-अनकही बातें,
जिनमें डूबकर
गुजरती थीं मेरी कोरी रातें।
हाँ! सोचा तो था कुछ ऐसा,
उम्र में थोड़ा कच्चा था तब।
देखता था पिता को
उनका कर्त्तव्य निभाते,
दिन-रात मेहनत करते
और जिम्मेदारियाँ उठाते।
सोचता था!
क्या यही होता है जीवन?
जिसमें पिता ही अर्पण करता
तन-मन-धन ।
अब पहुँच गया हूँ मैं भी,
उम्र की उसी दहलीज पर,
मिल गये उत्तर उन प्रश्नों के,
जो उभरते थे मेरे मन में भींचकर।
अब बैठा है पिता सजल
स्वप्नों से सजी खाट पर,
होता है फ़ख्र अब खुद पर मुझे,
क्योंकि चलता हूँ मैं भी
अपने कर्त्तव्य पथ पर।
सोचा था मैंने जो
बचपन में पहली बार,
उसका उत्तर था!
कर्तव्य मार्ग है जीवन,
बिखरे जिस पर कर्तव्य अपार।