निराश मन की आशा

सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’

रचयिता- सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’ (लखनऊ हरदोई रोड टावर प्लाट सुन्नी, निकट बघौली चौराहा)


एक पढ़ा लिखा नामी-गिरामी परिवार से जुड़ा युवक जब घर परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता तो उसको घर के बाहर कमाई के लिए जाना पड़ता है । निराश मन की व्यथा को उजागर करती हुई, ईमानदार पथ के लिए उत्साह प्रदान करती कविता सादर समर्पित है ।


मन चाही कौड़ी दे ले लो, बिकने को तैयार हैं ।
जीवन शैली बदलने को, हम तो खड़े बाजार हैं ।।
अब अभाव का जीवन मुझको, किसी तरह स्वीकार नहीं ।
करके कर्म धर्म की रक्षा, करना अंगीकार कहीं ।।
आजादी में बर्बादी देखी, किया बहुत इन्तजार है ।
मन चाही••••••••••••••••।
घर की व्यवस्था चूर-चूर, सेवा समाज सब घायल है।
प्रतिभाएं गायब सी लगतीं,
कोई न अपना कायल है ।।
ऐसे समय में जिन्दा रहना, साँसे बिल्कुल भार हैं ।।
मन चाही••••••••••••••••।
बहुत लोग हैं मिलने वाले,
कोई हाल नहीं पूंछे।
जो संग-संग चलना चाहे,
वह मुझसे ज्यादा छूंछे ।।
कोई मददगार ना दिखता, हंसने को सब तैयार हैं ।
मन चाही••••••••••••••••।
परिश्रम ताला की चाभी,
सही सही जो लग जाये।
जीवन की खुशियाली भी, हर जीवन जग में आ जाये ।।
‘परदेशी’ ईमान न बिकने देना, चाहें लुट जाए घर द्वार ।
मन चाही•••••••••••••••।।