डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-
दीपवर्तिका की ज्वलनशीलता
लोकमानस की सहनशीलता
पृथक्-पृथक् पथ पर परिलक्षित
होती हैं।
दो समानान्तर दूरी पर चलते हुए
भी
संवाद करने के लिए कहीं-कोई
ठौर नहीं बचता।
किस हेतु लोक दीप जलाता है
ख़ुश हो लेता है?
दीप-प्रज्वलन के निहितार्थ से
नितान्त परे रहकर।
प्रतिस्पर्द्धा का नग्न प्रदर्शन
पर्यावरण का आर्त्त स्वर
निष्प्रभ आत्मिकता की ज्योति
भौतिकता की दीपमाला चहुँ ओर
बिखरती है
मन-प्राण-आत्मा इन सबसे
पृथक्
स्नेह, सौजन्य, सहानुभूति
सदाशयता की बाट जोहते रह
जाते हैं।
सजधज कर
एक और दीपावली आती है
और छोड़ जाती है
बिना मरहम लगे घावों को।
नियति मुसकुराती है
मानव की अर्थहीन, भावहीन
उत्सवधर्मिता पर!
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; १९ अक्तूबर, २०१७ ई०)