फ़िर कभी न अश्क़ से हम, यों मोहब्बत को भिगोएँगे

गीत

जगन्नाथ शुक्ल..✍ (प्रयागराज)

चल ग़ज़ल हम फ़ातिहा ,
पढ़ आयें ग़म की कब्र पे;
फ़िर कभी न अश्क़ से हम,
यों मोहब्बत को भिगोएँगे।

रोष उनमें था बहुत ,
और दोष हममें कम न था;
पर वफ़ा जितनी थी हममें,
ग़म में उतना दम न था।
चेहरे पे थी कुछ शिकन,
पर मन में न कोई शिकायत;
दिल में बसा था प्रेम पावन,
होठों में थी प्रेम -आयत।
अब उमर भर याद कर हम,
उस घड़ी को रोएँगें। फिर कभी………………

वो हैं फिसले रेत जैसे,
हम मुट्ठी बाँधे ही खड़े हैं;
वो बजाते स्वर्ग-कुण्डी,
हम नरक – भागी बने हैं।
दिल में मेरे क्यों चतुर्दिक,
हैं ग़मों के ज्वार उमड़े;
मेघ जो कल थे कपासी,
आज श्यामल बनके घुमड़े।
नीर आँखों से बहाकर,
कब तक पलक को धोएँगें। फिर कभी………………

श्वेत शान्ति प्रेयसी वो,
कब मेरी धक धक सुनेगी?
तुम ही हो मेरे सनम,
ये बात कब हक़ से कहेगी?
वो हवा में फ़िर से घुलकर,
कब मेरी साँसों में मिलेंगे?
नाज़ुक नेह के मृदुबन्ध से;
फ़िर कब हमारे दिल खिलेंगे?
सात जन्मों के सपन हम,
फ़िर सात क़दमों से बोएँगें। फ़िर कभी………..