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जगन्नाथ शुक्ल…✍ (इलाहाबाद)
अभिनन्दन की आस लिए मैं जीवन जीता जाता हूँ।
कर्मयोग का साधक मैं नित भगवत्- गीता गाता हूँ।।
अभिनन्दन की………………………. …………..
भेद-भाव के इस कानन में स्वाभिमान का प्रहरी हूँ,
प्रेम-भाव में विह्वल हुआ बम-बम भोले-सा लहरी हूँ।
कष्टसाध्य जीवन- पथ की मैं अनूदित परिभाषा हूँ,
पुष्पों का सौभाग्य कहाँ मैं काँटों की अभिलाषा हूँ।
समरस जीवन की चाह लिए मैं नेह की फ़सल उगाता हूँ।
अभिनन्दन की………………………. …………….
ठोकर लगती गिरता- उठता फिर आगे को बढ़ जाता हूँ,
उपल-विषम पाषाण हृदय में नव मूरत गढ़ जाता हूँ।
स्वार्थ विषों से सिक्त शरों से मैं अक्सर ही घिर जाता हूँ,
प्रत्युत्तर में प्रतिघात करूँ क्या अपनों के ही सिर पाता हूँ।
विषदन्तों से निष्यन्दित होते सारा विष ही पी जाता हूँ।
अभिनन्दन की………………………. …………………
चाह नहीं है किसी ताज़ की न राजभोग की चाहत है,
चाटुकारिता के बढ़ते क़दमों से हृदय बहुत ही आहत है।
जाति-धर्म की जलती ज्वाला से जलता भारत देख रहा,
दूर खड़ा पाखण्डी जलती चिता से देह को सेंक रहा।
ऐसे भारत में खुद को निशि-दिन दुःख से घिरता पाता हूँ।
अभिनन्दन की………………………. …………………