सब बातों को छोड़कर

आकांक्षा मिश्रा –
______________________________
दिसम्बर की सर्दी
रजाई में दुबके हुए इंसान मायूस से आये नजर
कभी भोर में चलते उस महिला को देखते , इधर के दिनों सातवां महीना चल रहा है
एक साथ से शरीर को ढकती हुई कभी उभरे पेट को छुपाती तेज चली जा रही
कुहरे से रास्ते धुंध है
महिला पलटकर देखने में विश्वास नही करती
उसे पसन्द है आगे बढ़ते चले जाना
अच्छा है जहाँ जा रही है
साहब की बीबी पेट से है काम करने में असमर्थ है
महिला सहयोगी है साहब की बीबी की बदले बंधे हुए हजार रूपये महीने के मिलते है
साहब की बीबी का दिनचर्या विचित्र रहती है
महिला भोर की निगरानी में खड़ी है
मुख पर ओज लिए हुए आने वाले नए मेहमान की तैयारी में बेहद संजीदा सी
अच्छा लगा उसे देखकर दिन-दिन जोड़ती है
माँ के प्रेम ने उसे परिपूर्ण करने की पहली होड़ है
कुहरे की चादर ने ढक लिया उसके लम्बे बालों को नाक की नोक को छू रही नाभि को
महिला मस्त सी चली जा रही साहब की बीबी की पहली सखी बनकर
मंजिल तक पहुँचने में कई मोड़ रहे उसने फिर बदले अपने चाल की पहली बदलाव को सलाम उसकी चेतना की
______________________________