एक अभिव्यक्ति : सपनों के सारे ख़रीदार हो गये

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


एक :
देखते-ही-देखते, हम बाज़ार हो गये,
सपनों के सारे यहाँ, ख़रीदार हो गये।
गरदन झटक पंछी-मानिंद, उड़ते रहे जो,
बेशक, वही अब हमारे, तलबगार हो गये। दो :
ज़िन्दगी से छेड़ख़ानी करने से पहले तू सँभल,
अजल (मृत्यु) खड़ी है तेरे दर पे, गुलदस्ता लिये हुए।
तीन :
ज़माने की चलन देख, ज़ेह्न में ख़ून उतर आता है,
सोचता हूँ, ताउम्र अब ख़ुद को ही देखता रहूँ।
चार :
कुछ ख़ता लिपस्टिक-सी, चिपकी हैं होठों पे,
पहचाने हर्फ़ खुरेचने पे, आँखों को शिकायत है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; २३ जून, २०१८ ईसवी)