आँखें जिधर घुमाइए, दिखते हैं सब सूर

◆ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
सत् संवाद-शून्य है, लुप्त धरा का धाम।
कलियुग को हम क्या कहें, जहाँ फँसे हैं राम।।
दो–
राम-नाम की लूट मे, भक्त फँसे हनुमान्।
नेत्र घृणा की बन्द कर, सन्मति दे भगवान्।।
तीन–
भाँज रहे तलवार हैं, बोलें जय श्री राम।।
दिखता घृणा-कपाट है, कोई तो ले थाम।।
चार–
मन्दिर मे श्रद्धा नहीं, मस्जिद भी अब दूर।
आँखें जिधर घुमाइए, दिखते हैं सब सूर।।
पाँच–
है ज़मीन दो ग़ज़ यहाँ, और ग़ज़ का चार कफ़न।
मार-काट फिर किसलिए, सबसे बढ़कर वतन।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ अप्रैल, २०२२ ईसवी।)