ऐसा मूरख देखिये, बेंचै सूखी घास ।
कौन खरीदेगा भला, जिसमें तत्व न आस ।।
घूमता गली- गली ।
पूछता गली- गली ।।
दोनो पलड़ों में धरे, मूरख बेंचै घास ।
दून-दून दे डालता,होता नहीं उदास ।।
बाँट से क्या बाँटे ।
चतुरता क्या छाँटे ।।
अपनी-अपनी जोगिनी,अपनी अपनी चाह ।
सुनता कौन बिरास की,मिलत न जिसकी थाह ।।
ढूंढता इधर उधर ।
भटकता इधर उधर ।।
हरीभरी जब तक रही, चरते सारे ढोर।
मूरख फिर-फिर काटता,आकर अगली भोर ।।
जामती पुनः – पुनः ।
राजती पुनः – पुनः ।।
छील काटकर रख लिया, एक बड़ा सा ढेर ।
दस दिन बेंचेगा, उसे, होगी नहीं अबेर ।।
चाह मरकटिया है ।
बड़ी बरजतिया है ।।
चन्द्र प्रभा संग झूमती, मलयानिल में घास ।
‘ओस बिन्दु’ संग साजती, खिलता नवल प्रभात ।।
सूर्य गिन लेता है ।
सभी चुन लेता है ।।
जल प्रवाह में न चले, जीवन शरण प्रयास ।
जल समाधि है टालती, तिनका-तिनका घास ।।
सहारा बहुत बड़ा ।
फूस का मान बड़ा ।।
प्यारे, मुझ पर न हँसो,जो यह सूखी घास ।
तेरी भी गति होयगी, जैसी है यह घास ।।
अकेला पड़ा रहेगा ।
मन ही मन में रोयेगा ।।
तुच्छ घास सम व्यक्ति को, यहाँ पूछता कौन ।
वक्र दृष्टि, मुख फेरते, चल पड़ते ह्वै मौन ।।
घास को जल्दी बेंच ।
लगा रे बोली तेज ।।
रे,रे,मूरख घसियारे ।
चल रे,बढ़ आगे, प्यारे ।।
अवधेश कुमार शुक्ला ‘मूरख हिरदय’
देव दीपावली-कार्तिकी/गुरु नानक देव जयन्ती
30/11/2020