● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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साहिब!
देखते-ही-देखते,
‘इण्डिया’ प्रौढ़ हो गया।
उसकी जड़ें भी,
कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैल चुकी हैं;
सागर की गहराई-सा गाम्भीर्य है;
उसके तने,
आकाश की ऊँचाई-से शिखरस्थ हैं।
आस-पास का माहौल :–
बिगड़ा-बिगड़ा,
उद्दण्ड-उद्धत, जंगली-सा दिखता है।
ज़ह्रीले साँप भी फन काढ़े;
फुँफकारते-सिसकारते बैठे हैं।
मौक़े की तलाश मे,
हर ओर गिद्ध-ही-गिद्ध नज़र आते हैं।
कहीं कुत्तों की भौं-भौं;
कहीं सियारों का हुआँ-हुआँ;
कहीं उल्लुओं का डेरा;
तो कहीं चमगादड़ों का बसेरा;
सब कुछ स्याह-सा दिखता।
नज़ारा और नज़रिय:,
एक अलग ही सुर अलापते,
सच से दूर-बहुत-दूर।
छल-छद्म, द्वेष, मिथ्या,
अहंकार, मात्सर्य, कुबोल का– समन्वित बस्ती बनाता;
अहंकारी पुरुष–
अपने बौने क़दमो से,
ब्रह्माण्ड को नापने का–
उपक्रम करना नहीं भूलता।
अफ़्सोस! वह भूल जाता है,
सूर्यमण्डल को स्पर्श करने की चाह मे,
जटायु और सम्पाती का परिणाम।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० सितम्बर, २०२३ ईसवी।)