
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
जीवन जड़वत् दिख रहा, बहे नेत्रजल धीर।
जोड़ो मन को क्रान्ति से, शब्द बना लो तीर।।
दो–
बलखाती इठला रही, सरिता संंचय नीर।
आँगन बैठी धूप है, आकुल हुआ शरीर।।
तीन–
मृग-मरीचिका चाह है, मन-गति दिखता रोध।
कैसा है यह जग भला, कैसा यह अवरोध?
चार–
छल-प्रपंच, मद-मोह हैं, माया के बहु रूप।
भेद नहीं है कर सके, हाथ भले हो सूप।।
पाँच–
मन की मन से चाह है, मन का मनका मेल।
जग-जीवन मिथ्या दिखे, यही रीति का खेल।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० सितम्बर, २०२३ ईसवी।)