
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)
डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-
पत्नी :
छोड़ न देना बाँह मेरी, यही है अपनी राह।
हर जन्म हम संग चलें, ऐसी अपनी चाह।।
पति :
मीत! मेरे मन में तुम्हीं, बन जीवन-आधार।
अर्द्ध अंग बनकर रही, सदा उठाया भार।।
पत्नी :
पति-पत्नी के प्रेम का, नहीं है कोई जोड़।
सप्तपदी की गाँठ का, नहीं दिखे है तोड़।।
पति :
मंज़िल पास न आ सके, यों चलें संग-संग।
मन बूढ़ा हो न कभी, छिटके कभी न अंग।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; ५ अक्तूबर, २०१७ ई०)