तरस जाओगे दो गज़ कफ़न के लिए

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


अब ख़ुद को लुटा दो, वतन के लिए,
अब ख़ुद को खिला दो, चमन के लिए।
ये आसां नहीं, जितना समझते हो तुम,
तरस जाओगे दो गज़, कफ़न के लिए।
बेशक, ज़माना ख़ुदगर्ज़ है, समझो इसे
राहें न बदलो अब, नये चलन के लिए।
मुहब्बतभरी निगाहों से, अब तोलो ज़रा,
अब कोई गुंजाइश न रखो, जलन के लिए।
हवा मुसकुरा कर होठों से, लिपट जाती है,
बात बढ़ न पाये, सोचो अब जतन के लिए।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; १४ जुलाई, २०१८ ईसवी)