● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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कहो!
चित्त को
क्योँ ले गये संश्लिष्ट विचार-गह्वर मे?
निर्द्वन्द्व करो अपने भाव को;
शिथिल करो शब्द-बन्धन को;
शब्द-शब्द होगा,
करबद्ध मुद्रा मे;
नतमस्तक हो,
तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा मे।
पात्रता ग्रहण करो;
रिक्त रहकर,
उद्विग्न रहोगे स्वयं से;
अपरिपक्व विचारों से,
फिर भाव के पक्ष मे
कोई अक्षर–
अनुमोदन करना नहीँ चाहेगा;
क्योँकि तुम मात्र एक तार्किक हो,
जहाँ तर्क रहता है;
वितर्क रहता है एवं कुतर्क भी।
तुम्हारे भीतर का,
अर्थवेत्ता और तत्त्वविद्–
सुषुप्तावस्था मे क्योँ पड़ा रहता है?
कभी अन्तस् को झिँझोड़ा?
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २६ अक्तूबर, २०२४ ईसवी।)