तुम तो सम्हल गए होगे मैं आज भी बिखरा पड़ा हूँ

डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’


माना कि हालात बेकाबू हो गए कई बार

जब भी वक़्त नासाज हुआ

हर बार भरोसा रखा मैंने 

या ख़ुदा तेरे भरोसे को क्या हुआ

कभी लगता है सँभल गया

कभी यों ही बिगड़ गया

वक़्त ऐसा 

जैसे रेत का बुत मुठ्ठी से फिसल गया

रोकना तो चाहा हमेशा पर

लम्हा इतना अजीब है

क्यों न समझ सका वो तड़प दिल की 

साथ रहकर भी

छोड़कर तुम जहां से गए थे 

मैं आज भी वहीँ खड़ा हूँ

यूँ तुम तो सम्हल गए होगे

मैं आज भी बिखरा पड़ा हूँ

इस दिल में रहोगे ता-उम्र

फिर क्यूँ डरते हो

पाक है मोहब्बत मेरी

यूँ नजरे चुरा के ना निकलो

इंतिज़ार है तेरे इक इशारे का

आगे खूबसूरत जहाँ पड़ा है

तेरे बिना वर्ना

दर्द का दरिया ‘राहत’ आँखों से बहता है ।