रोक न पाया वो कभी वक्त को

महेन्द्र नाथ महर्षि (सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी, दूरदर्शन)

आज दो माह बूढ़ा हो..
आगे बढ़ गया
दो हज़ार पच्चीस।
वक्त है कि वक्त आने पर भी नहीं लगता , किस तरह गुज़र जाती है ज़िन्दगी !
दरअसल वक्त नहीं चलता
थका हुआ, हारा हुआ,
चलता रहा इंसान ही।
वो खुद ही बुढ़ा जाता है ,
एक वक़्त,वक्त की गाड़ी
खींच खींच।
महज़ गिनती है ,
साल दर साल ,
रोक न पाया कोई जिसे आज भी।
एक तारीख़ और बढ़ चला
एक मार्च, दो हज़ार पच्चीस।
तीसरे माह आगे चल निकला , कुछ और थकने को , चुकने को
यह गुणातीत इंसान ही।
रोक न पाया वो कभी वक्त को,
अपनी मुठ्ठी भींच-भींच।
जो चलता ही नहीं
वो रोका कैसे जाएगा ?
यही ढूँढते-ढूँढते खुद बुढ़ा जाता है ,
सिर्फ़ इंसान ही।
कुछ मायने नहीं रखती ,
जनावरों के लिए ,
वक्त की गिनती कभी।
वक्त है कि नहीं लगता किस तरह गुज़र जाती है ज़िन्दगी।
ग़र इंसान के क़ाबू में होता वक्त तो ,
वो भूल जाता ख़ुदा की बंदगी।