प्रांशुल त्रिपाठी, रीवा
दीये जब नफरत के बुझ जाते हो
जब प्रेम से मीत बुलाते हो
जब कहीं किसी से बैर ना हो
सब अपने हो, कोई गैर न हो
उस रोज दीवाली होती है।
गरीबों की थाली में भी रोटी हो
हर किसी के बदन में धोती हो
किसी की भी माता जब वृद्धा आश्रम में ना रोती हो
जब किसी की औलाद सड़क में ना सोती हो
उस रोज दीवाली होती है।
हर किसी में अपनत्व की आभा हो
दुश्मन भी दुश्मन को गले लगाता हो
सद्भाव का बाजा बजता हो
जब प्रेम के दीपक जलते हो
उस रोज दीवाली होती है।