
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
गगरी अधजल दिख रही, छलक रहा है बोध।
चिन्तन चला वितान ले, मानसपथ अवरोध।।
दो–
मरा-मरा ही तत्त्व है, तत्त्व राम से हीन।
तत्त्वज्ञान राहित्य है, पापपंक मे लीन।।
तीन–
वीतराग मन कह रहा, जीवन है निस्सार।
पुलक प्रकट रति कह रही, प्रणयवेदना-सार।।
चार–
पुरुष-अर्थ तो मौन है, मुखर क्लीव-आधार।
प्रकृति-पुरुष की कल्पना, मानो जल बिन धार।।
पाँच–
काया-छाया गौण है, माया बनी प्रधान।
मिथ्या जगती दिख रही, कैसा रचा विधान।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २५ अगस्त, २०२३ ईसवी।)