★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
शाम ढली दीये को जलने दो,
नींद में सपनों को पलने दो।
बढ़ती है प्यास तो बढ़ जाये
बर्फ़ को पानी में गलने दो।
दम तोड़ ले ख़्वाहिश कहीं,
आदत है, नींद में चलने दो।
सरे-बाज़ार शख्स बिकता रहा,
उसे अब अपनो को छलने दो।
अँधेरों ने कब-कैसे ठगा उसे,
भोर हुई, आँखें अब मलने दो।
बूढ़ी हुईं हाथों की लकीरें सब,
भूली-बिसरी यादें हैं, खलने दो।
पश्चात्ताप व्यर्थ यहाँ है दिखता,
कोख में पाप है, फलने दो।
वक़्त को छेड़ना नादानी है,
सिर से मुसीबत को टलने दो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; २२ जुलाई, २०२१ ईसवी।)