डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’
रखता हूँ हर कदम ख़ुशी का ख़याल अपनी
डरता हूँ फिर ग़म लौट के न आ जाए ।
अब भुला दी हैं रंज से वाबस्ता यादें
यूँ आके ज़िंदगी में ज़हर न घोल जाएँ ।
इक बार जो गयी तो फिर न आएगी
यहाँ शौक महँगा है लबों पे हँसी रखने का ।
अपनी आबरू का ख़याल जो न रख सके तो
मरना भी है बेकार किसी को जिंदगी देकर ।
तूफ़ान में पहुंची है कश्ती साहिल तक मेरी
‘राहत’ बुज़ुर्गों की दुआ-ए-सलामती का असर है ।